जल प्रदूषण एवं इसका नियंत्रण



2 जल प्रदूषण एवं इसका नियंत्रण
संपूर्ण विश्व में मनुष्य जलाशयों में सभी प्रकार के अपशिष्ट का निपटान कर इसका दुरुपयोग कर रहा है। हम यह मान लेते हैं कि जल सब कुछ बहाकर ले जाएगा। ऐसा करते समय हम यह नहीं सोचते कि जलाशय हमारे साथ-साथ अन्य सभी जीवों के लिए जीवन का आधार है। क्या आप बता सकते हैं कि हम नदियों और नालों में क्या-क्या बहा देते हैं? विश्व के अनेक भागों में तालाब, झील, सरिता (या धारा) नदी, ज्चारनदमुख (ऐस्चुएरी) और महासागर के जल प्रदूषित हो रहे हैं। जलाशयों की स्वच्छता को कायम रखने के महत्त्व को समझते हुए भारत सरकार ने 1974 में जल प्रदूषण निरोध एवं नियंत्रण अधिनियम पारित किया है ताकि हमारे जल संसाधनों को प्रदूषित होने से बचाया जा सके।
2.1 घरेलू वाहित मल और औद्योगिक बहिःस्राव

नगरों और शहरों में जब हम अपने घरों में जल का काम करते हैं तो सभी चीजों को नालियों में बहा देते हैं। क्या आपको कभी आश्चर्य हुआ है कि हमारे घरों से निकलने वाला वाहित मल कहाँ जाता है? क्या समीपस्थ नदी में ले जाकर डालने या इसमें मिलने से पूर्व वाहित मल का उपचार किया जाता है? केवल 0.1 प्रतिशत अपद्रव्यों (इम्प्यूरीटीज) के कारण ही घरेलू वाहित मल मानव के उपयोग के लायक नहीं रहता है। ठोस पदार्थों को निकालना अपेक्षा-त आसान है लेकिन विलीन लवण, जैसे नाइट्राइट, पफाॅस्पेफट और अन्य पोषकों तथा विषैले धातु आयनों और कार्बनिक यौगिक को निकालना कठिन है। घरेलू मल में मुख्य रूप से जैव निम्नीकरणीय कार्बनिक पदार्थ होते हैं जिनका अपघटन (डिकम्पोजिशन) आसानी से होता है। हम अभारी हैं जीवाणु (बैक्टीरिया) और अन्य सूक्ष्म जीवों के जो इन जैव पदार्थों का उपयोग कार्यद्रव (सब्सट्रेट) के रूप में भी करके अपनी संख्या में वृद्धि कर सकते हैं और इस प्रकार ये वृद्धि कर सकते हैं और इस प्रकार ये वाहित मल के कुछ अवयवों का उपयोग करते हैं। वाहितमल जल जीव रासायनिक ओक्सीजन आवश्यकता (बायोकेमिकल ओक्सीजन डिमांड/बी ओ डी) माप कर जैव पदार्थ की मात्र का आकलन किया जा सकता है। क्या आप बता सकते हैं कि यह किस प्रकार किया जाता है? सूक्ष्मजीव से संबंधित अध्याय में आप बी ओ डी, सूक्ष्मजीवों और जैव निम्नीकरणीय पदार्थ के परस्पर संबंध के बारे में पढ़ चुके हैं।
      चित्र में कुछ परिवर्तन दर्शाए गए हैं जिन्हें नदी में वाहित मल के विसर्जन के
पश्चात् देख जा सकता है। अभिवाही जलाशय में जैव पदार्थों के जैव निम्नीकरण (बायोडिग्रेडेशन) से जुड़े सूक्ष्मजीव ओक्सीजन की काफी मात्र का उपभोग करते हैं।

इसके स्वरूप वाहितमल विसर्जन स्थल पर भी अनुप्रवाह (डाउनस्ट्रीम) जल में घुली
ओक्सीजन की मात्र में तेजी से गिरावट आती है और इसके कारण मछलियों तथा अन्य
जलीय जीवों की मृत्युदर में वृद्धि हो जाती है। जलाशयों में काफी मात्र में पोषकों की उपस्थिति के कारण प्लवकीय (मुक्त-प्लावी) शैवाल की अतिशय वृद्धि होती है इसे शैवाल प्रस्पुफटन (अल्गल ब्लूम) कहा जाता है। इसके कारण जलाशयों का रंग विशेष प्रकार का हो जाता है। शैवाल प्रस्पुफटन के कारण जल की गुणवत्ता घट जाती है और मछलियाँ मर जाती हैं। कुछ प्रस्पुफटनकारी शैवाल मनुष्य और जानवरों के लिए अतिशय विषैले होते हैं। आपने नीलाशोण (मोव) रंग के सुंदर पूफलों को देखा होगा जो जलाशयों में काफी चित्ताकर्षक आकार के प्लावी पौधों पर होते हैं। ये पौधे अपने सुंदर पूफलों के कारण भारत में उगाए गए थे, लेकिन अपनी अतिशय वृद्धि के कारण तबाही मचा रहे हैं। ये पौधे हमारी हटाने की क्षमता से कहीं अधिक तेजी से वृद्धि कर, हमारे जलमार्गों (वाटर वे) को अवरु( कर। ये जल हायसिंथ (आइकोर्निया केसिपीज) पादप हैं जो विश्व के सबसे अधिक समस्या उत्पन्न करने वाले जलीय खरपतवार (वीड) हैं और जिन्हें बंगाल का आतंक भी कहा जाता है। ये पादप सुपोषी जलाशयों में काफी वृद्धि करते हैं और इसके पारितंत्र गति को असंतुलित कर देते हैं। हमारे घरों के साथ-साथ अस्पतालों के वाहित मल में बहुत से अवांछित रोगजनक सूक्ष्मजीव हो सकते हैं और उचित उपचार के बिना इसको जल में विसर्जित करने से कठिन रोग- जैसे पेचिश (अतिसार), टाइपफाइड, पीलिया (जांडिस), हैजा (कोलरा) आदि हो सकते हैं। घरेलू वाहित मल की अपेक्षा उद्योगों, जैसे पेट्रोलियम, कागज उत्पादन, धातु निष्कर्षन (एक्सट्रेक्सन) एवं प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग), रासायनिक-उत्पादन आदि के अपशिष्ट जल में प्रायः विषैले पदार्थ, खासकर भारी धातु (ऐसे तत्त्व जिनका घनत्व झ5 ग्राम/सेमी3, जैसे पारा, केडमियम, ताँबा, सीसा आदि) और कई प्रकार के कार्बनिक यौगिक होते हैं। उद्योगों के अपशिष्ट जल में प्रायः विद्यमान कुछ विषैले पदार्थों में जलीय खाद्य शृंखला जैव आवर्धन (बायोमैग्निपिफकेशन) कर सकते हैं । जैव आवर्धन का तात्पर्य है, क्रमिक पोषण स्तर (ट्राॅपिफक लेबल) पर आविषाक्त की सांद्रता में वृद्धि का होना। इसका कारण है जीव द्वारा संग्रहित आविषालु पदार्थ उपापचयित या उत्सर्जित नहीं हो सकता और इस प्रकार यह अगले उच्चतर पोषण स्तर पर पहुँच जाता है। यह परिघटन पारा एवं डीडीटी के लिए सुविदित है। में जलीय खाद्य शृंखला में डीडीटी

का जैव आवर्धन दर्शाया गया है। इस प्रकार क्रमिक पोषण स्तरों पर डीडीटी की सांद्रता बढ़ जाती है। यदि जल में यह सांद्रता 0.003 पी पी बी (चचइत्रपार्टस पर बिलियन) से आरंभ होती है तो अंत में जैव आवर्धन के द्वारा मत्सयभक्षी पक्षियों में बढ़कर 25 पीपीएम हो जाती है। पक्षियों में डीडीटी की उच्च सांद्रता केल्सियम उपापचय को नुकसान पहुँचाती है जिसके कारण अंड-कवच (एग शेल) पतला हो जाता है और यह समय से पहले पफट जाता है जिसके कारण पक्षि-समष्टि (बर्ड पोपुलेशन) यानी इनकी संख्या में कमी हो जाती है।
सुपोषण (यूट्राॅपिफकेशन) झील का प्राकृतिककाल-प्रभावन (एजिंग) दर्शाता है यानी झील अधिक उम्र की हो जाती है। यह इसके जल की जैव समृद्धि के कारण होता है। तरुण (कम उम्र की) झील का जल शीतल और स्वच्छ होता है। समय के साथ-साथ, इसमें सरिता के जल के साथ पोषक तत्त्व जैसे नाइट्रोजन और फास्फोरस आते रहते हैं जिसके कारण जलीय जीवों में वृद्धि होती रहती है। जैसे-जैसे झील की उर्वरता बढ़ती है वैसे-वैसे पादप और प्राणि जीवन प्राणि बढ़ने लगते हैं और कार्बनिक अवशेष झील के तल में बैठने लगते हैं। सैकड़ों वर्षों में इसमें जैसे-जैसे साद (सिल्ट) और जैव मलवे (आर्गेनिक मलवा) का ढेर लगता जाता है वैसे-वैसे झील उथली और गर्म होती जाती है। झील के ठंडे पर्यावरण वाले जीव के स्थान पर उष्णजल जीव रहने लगते हैं। कच्छ पादप उथली जगह पर जड़ जमा लेते हैं और झील की मूल द्रोणी (बेसिन) को भरने लगते हैं उथले झील में अब कच्छ (उंतेी) पादप उग आते हैं और मूल झील बेसिन उनसे भर जाता है। कालांतर में झील काफी संख्या में प्लावी पादपों (दलदल/बाॅग) से भर जाता है और अंत में यह भूमि में परिवर्तित हो जाता है। जलवायु, झील का साइज और अन्य कारकों के अनुसार झील का यह प्राकृतिककाल-प्रभावन हजारों वर्षों में होता है। पिफर भी मनुष्य के क्रिया कलाप, जैसे उद्योगों और घरों के बहिःस्राव (एफ्रलुअंट) काल-प्रभावन प्रक्रम में मूलतः तेजी ला सकते हैं। इस प्रक्रिया को संवर्ध (कल्चरल) या त्वरित सुपोषण (एक्सिलरेटेंड यूट्रॅापिफकेशन) कहा जाता है। गत शताब्दी में पृथ्वी के कई भागों के झील का वाहित मल और -षि तथा औद्योगिक अपशिष्ट के कारण
तीव्र सुपोषण हुआ है। इसके मुख्य संदूषक नाइट्रेट और फास्फोरस हैं जो पौधों के लिए पोषक का कार्य करते हैं। इनके कारण शैवाल की वृद्धि अति उद्दीपित होती है जिसकी वजह से अरमणीक मलपेफन (स्कम) बनते तथा अरुचिकर गंध निकलती हैं। ऐसा होने से जल में विलीन ओक्सीजन जो अन्य जल-जीवों के लिए अनिवार्य (वाइटल) है, समाप्त हो जाती है। साथ ही झील में बहकर आने वाले अन्य प्रदूषक संपूर्ण मत्स्य समष्टि को विषाक्त कर सकता है। जिनके अपघटन के अवशेष से जल में विलीन ओक्सीजन की मात्र और कम हो जाती है। इस प्रकार झील वास्तव में घुट कर मर सकती है। विद्युत उत्पादी यूनिट यानी तापीय विद्युत् सन्यंत्रों से बाहर निकलने वाले तप्त (तापीय) अपशिष्ट जल दूसरे महत्त्वपूर्ण श्रेणी के प्रदूषक हैं। तापीय अपशिष्ट जल में उच्च तापमान के प्रति संवेदनशील जीव जीवित नहीं रह पाते या इसमें उनकी संख्या कम हो जाती है लेकिन अत्यंत शीत-क्षेत्रों में इसमें पौधों तथा मछलियों की वृद्धि अधिक होती है।
2.2 एकीकृत अपशिष्ट जल उपचारः केस अध्ययन
वाहित मल सहित अपशिष्ट जल का उपचार एकीकृत ढंग से कृत्रिम और प्राकृतिक दोनों
प्रक्रमों को मिला-जुलाकर किया जा सकता है। इस प्रक्रम का प्रयास केलीपफोर्निया के
उत्तरी तट पर स्थित अर्काटा शहर में किया गया। हमबोल्ट स्टेट यूनीवर्सिटी के जीव वैज्ञानिकों के सहयोग से शहर के लोगों ने प्राकृतिक तंत्र के अंतर्गत एकीवृफत जल उपचार
प्रक्रम तैयार किया गया। जलोपचार का कार्य दो चरणों में किया जाता है
(क) परांपरागत अवसादन, जिसमें निस्यंदन और क्लोरीन द्वारा उपचार किया जाता है। इस चरण के बाद भी खतरनाक प्रदूषक जैसे भारी धातु, काफी मात्र में घुले रूप में रह जाते हैं। इसे दूर करने के लिए एक नवीन प्रक्रिया अपनाई गई, और
(ख) जीव वैज्ञानिकों ने लगभग 60 हेक्टेयर कच्छ भूमि में आपस में जुड़े हुए छह कच्छों (मार्शेस) की एक शृंखला विकसित की। इस क्षेत्र में उचित पादप, शैवाल, कवक और जीवाणु छिड़के गए जो प्रदूषकों को निष्प्रभावी, अवशोषित और स्वांगी-त (एसिमिलेट) करते हैं। इसलिए कच्छों से होकर गुजरने वाला जल प्राकृतिकरूप से शुरू हो जाता है। कच्छ एक अभयारण्य की तरह कार्य करता है यहाँ उच्च स्तरीय जैव विविधता, और मछलियाँ, जानवर और पक्षी वास करते हैं। इस आश्चर्यजनक परियोजना की देखभाल तथा सुरक्षा नागरिकों के एक समूह, प्रेंफड्स ओपफ आर्वफटा मार्श (एपफ ओ ए एम) द्वारा की जाती है। अब तक हमारी यह धारणा रही है कि अपशिष्ट को दूर करने के लिए जल यानी वाहित मल के निर्माण की जरूरत होती है। लेकिन मानव अपशिष्ट, उत्सर्ग (एक्सक्रीटा) यानी मल-मूत्र के निपटान के लिए यदि जल जरूरी न हो तो क्या होगा? क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि यदि टोयलेट को फ्रलश न करना पड़े तो जल की कितनी बचत होगी? वास्तव में यह एक वास्तविकता है। मानव उत्सर्ग (मलमूत्र) के हैंडलिंग (निपटान) के लिए पारिस्थितिक स्वच्छता एक निर्वहनीय तंत्र है जिसमें शुष्क टोयलेट वंफपोस्टिंग का प्रयोग किया जाता है। मानव अपशिष्ट निपटान के लिए यह व्यावहारिक, स्वास्थ्यकर और कम लागत का तरीका है।यहाँ ध्यान देने योग्य मुख्य बात यह है कि कम्पोस्ट की इस विधि से मानव मलमूत्र (उत्सर्ग) का पुनश्चक्रण कर एक संसाधन (प्राकृतिकउर्वरक) के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। इससे रासायनिक खाद की आवश्यकता कम हो जाती है। केरल के कई भागों और श्रीलंका में इकोसैनशौचालयों (टायलेट) का प्रयोग किया जा रहा है।
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